रविवार, 13 सितंबर 2015

फेयरनेस क्रीम, आर्यत्त्व और नासमझी

तमिळ भारत में विज्ञापन दिखा - ‘गोरेपन’ की क्रीम का। इस लगभग कम काले, काले और पूर्ण काले क्षेत्र में गोरेपन की क्रीम के इतने महँगे प्रचार का एक ही तुक समझ में आता है – गोरी प्रभु जाति के सम होने की दमित इच्छा का पोषण। गोरा सुन्दर हो, आवश्यक नहीं। सुन्दरता तो एक सम्पूर्ण प्रभाव होती है जिसमें ढेर सारे कारक काम करते हैं। प्रभु वर्ग का गोरापन हमारे भीतर सैकड़ो वर्षों से पैठा हुआ है। इसके साथ कहीं न कहीं आक्रांता, अत्याचार, दमन, जातीय नाश आदि, वर्तमान अकादमिकी को रोजी रोटी प्रदान करने वाली केन्द्रीय अवधारणायें और उनसे सम्बन्धित तप की अट्टालिकायें और ध्वंस भी जुड़ते हैं। 

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भारतीय सन्दर्भ में आर्य आक्रमण और जातीय सर्वनाश की चूर चूर हो चुकी परिकल्पनायें अभी भी केन्द्र में खरमंडल मचा रही हैं क्यों वे कि दारू बोटी से ले कर सम्मान तक की मौलिक वासनाओं की पूर्ति का साधन हैं। इन्हें वेंटिलेटर पर जीवित रखने वालों के तर्क बहुत सरल हैं:

(1) मुख्यभूमि भारत का बहुसंख्य काला है। स्पष्ट है कि गोरा रंग बाहर से आया।

(2) वर्ण व्यवस्था के शीर्ष पर जो हैं वे अधिकतर गोरे और तीखे नयन नक्श वाले हैं जिसकी साम्यता कॉकेशियन और मध्य भौगोलिक जातियों से है।

(3) जीन सम्बन्धित आधुनिक शोध भी इन साम्यताओं को दर्शाते हैं।

पूर्वग्रह और संस्कारजन्य आग्रह सबमें होते हैं, अकादमिकी में भी हैं लेकिन इस मामले में बहुसंख्य को अन्धा किये हुये हैं। तथ्यों का नकार है, तोड़ मरोड़ है और सुविधा पूर्वक पूर्ण उपेक्षा के साथ बकलोली भी!

ये सारी बातें समीकरण के दायीं ओर दिखती परिणाम हैं। इनके आधार पर बायीं ओर को गढ़ा जाता है। एक परिणाम के आधार पर उसकी जननी प्रक्रिया गढ़नी हो तो चर कारकों की संख्या, उनका स्वभाव और उनमें आपसी सम्बन्ध आदि का चयन बहुत कुछ शिल्पी पर निर्भर करता है। यहीं पर मामला वस्तुनिष्ठता से परे हटता है।

 

आइये देखते हैं। पहले बिन्दु क्रमांक 3, क्यों कि वह ‘वैज्ञानिकता’ का आवरण पहने हुये है। जीन सम्बन्धी शोधों में भी वही चयनी मानसिकता काम करती है। मातृपक्ष के जीन देखे जायँ या पिता के पक्ष के, नमूनों की संख्या, विविधता और उनका प्रसार परास कितनी हो, किस कारक पर केन्द्रित हुआ जाय और सबसे बड़ी बात कि उद्देश्य क्या हो। पक्ष और विपक्ष दोनों ओर पर्याप्त परिणाम उपलब्ध हैं, सबकी अपनी सीमायें हैं। उन पर न जाते हुये उस खोज की बात करते हैं जिसके अनुसार पचास-साठ हजार वर्ष पहले अफ्रीका से पहले मानव निकले, कुछ नीचे से और कुछ ऊपर भूमध्य सागर के आसपास आ कर बँटते हुये भारतीय क्षेत्र और यूरोप की और बढ़े। इसका भी खंडन अब अफ्रीका और भारत में मिले कुछ अवशेषों से होने लगा है लेकिन बात है महत्त्वपूर्ण, इतनी महत्त्वपूर्ण J कि इस तथ्य को नकार जाती है कि मूल स्रोत में तो लगभग सब काले मोटी रूपरेखा वाले हैं लेकिन अन्य स्थानों पर लाल, पीले, श्वेत, गेंहुये रंग और तीखे मोटे नयन नक्श वाले कैसे? रंग को छोड़ दें तो स्वयं भीतरी अफ्रीका में भी कद काठी और नयन नक्श में पर्याप्त विविधता है। कुछ लोग उत्परिवर्तन और जलवायु के प्रभावों से इसका उत्तर देने के प्रयास करते हैं लेकिन बात उतनी आसानी से मन में नहीं उतरती जितनी आसानी से प्रश्न। इसका एक आसान उत्तर है – विश्व के कई भागों में समांतर रूप से मनुष्यों की जातियाँ थीं जो पहले तो अलग थलग रहीं लेकिन कई कारणों से प्रवजन और लैंगिक मिलन में लिप्त हो समूची धरा पर फैल गईं। विविधता आज भी उतनी ही है लेकिन भौगोलिक रूप से सुनिश्चित सीमाओं में बँधी हुई नहीं है। हाँ, उत्परिवर्तन और जलवायु के प्रभाव निस्सन्देह हैं लेकिन ऐसे नहीं कि प्रमुख माने जायँ।

 

बाकी दो बिन्दुओं को मिला जुला कर समझते हैं। पहले एक प्रश्न - भारत की सीमायें शाश्वत हैं या कुछ प्राकृतिक और राजनैतिक कारकों के आधार पर हमने खींची है? स्पष्टत: हमने खींची हैं। जो आज है वह 1947 के पहले कुछ और था, वह 1700 में कुछ और था तो 700 में कुछ और। सात हजार वर्ष पहले तो एकदम अलग था। यह बहुतेरे कारकों के लिये सत्य है और सीमाओं के लिये भी। भौगोलिक कारणों से एक दूसरे से अलग थलग प्रजातियाँ यहाँ भी थीं, विकसित होती रहीं। समय ने करवट ली तो एक दूसरे के साथ युद्ध, संवाद, सम्मिलन हुये। मनुष्य ने यात्रायें भी खूब कीं। इन सबका पहला आभास आदिकाव्य रामायण में मिलता है जिसमें वानस्पतिक और भौगोलिक विविधताओं के जीवंत वर्णन हैं। उत्तर पश्चिम में दूर तक फैली वैदिक जनजाति थी जिसमें गतिशीलता अधिक थी। व्यापार उनका एक मुख्य कर्म था और पुरोहित मुख्य कर्मी जो संगीत, काव्य और कथावार्त्ता में निपुण थे। यह भी संभव है कि वे गेंहुये पहले तो वे पूरे भारत में फैले थे लेकिन किसी बहुत ही विनाशकारी प्राकृतिक घटना ने उन्हें उत्तर पश्चिम में सीमित कर दिया। उनकी ऋचायें उन पुरनियों का स्मरण बहुत ही लगाव के साथ करती हैं, साथ ही उहात्मक गाथाओं के माध्यम से वैसी घटनाओं के संकेत भी देती हैं। वे अपनी विधि ‘अपनाने’ में बहुत आगे थे। व्यापार, संघर्ष और जीवनपद्धति को साथ लिये वे बढ़ते मिलते गये। हारे भी, जीते भी लेकिन समायोजन के अपने विशिष्ट गुण के कारण दूसरों को अपनाते, उनके जैसे होते और उन्हें अपने जैसा करते चले गये। समय ने करवट बदली, नदियाँ सूखीं, अकाल पड़े, विराट स्तर पर प्रवजन हुये। वैदिकों ने नयी बातें सीखीं, नये जन को अपने में स्थान दिया, उनके हुये और धारा बहती रही। वे आक्रांता, आक्रमणकारी या बाहरी तो थे ही नहीं! हाँ, उनके समाज और बनावट में दीर्घजीविता सबसे प्रबल शक्ति थी, समायोजी जो थे!

 

जब हम उस समय में पहुँचते हैं जिसे कि आज इतिहास कहा जाता है तो पाते हैं कि सुदूर उत्तर, मध्य और पश्चिम से पर्थियन, मेसीडोनियन, बैक्ट्रियन, सीथियन, शक, हूण आदि भारत में घुसे चले आ रहे हैं। इनमें से अधिकतर उस कथित आर्य रक्त वाले ही हैं जिन्हें कि वैदिक आक्रांता बताया जाता रहा है। कुछ का शासन क्षेत्र मगध तक फैला मिलता है और फिर कुछ सौ वर्षों में ही इनकी अलग पहचान समाप्त हो जाती है। गये कहाँ वे? कहीं नहीं गये, यहीं हैं - हमारे रक्त में। यहाँ के उन समायोजी पुरोहितों ने उनको अपना लिया। यदा कदा ऐसा हुआ कि राजा ने भी अपने लिये पुरोहित वर्ग बना लिया। चूँकि वे अधिकतर शासक और व्यापारी प्रभु वर्ग से थे इसलिये उनका समायोजन भी क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में हुआ जो कि प्रभु वर्ग था। जो थोड़ी सी जीन साम्यता मिलती है न, उनके कारण है न कि किन्हीं आक्रांता आर्यों के कारण। वर्ण व्यवस्था के शीर्ष पर गोरे गेंहुये रंग और तीखे नयन नक्श की बहुलता का एक कारण यह भी है।

 

जब श्वेत अंग्रेज यहाँ आये तो किस लिये आये? व्यापार करने आये। शासन करने की सुविधा दिखी तो उसमें भी लग गये। चालाक थे – वैश्य और क्षत्रिय तत्त्व की सामाजिकता को शीघ्र समझ गये। तथ्यों को तोड़ मरोड़ अपने अनुसार ढाल लेना आसान था, आखिर वे अपने द्वारा रचे ‘आर्य’ जन के समान ही तो काम कर रहे थे! हमने उनके छ्ल को भी अपना लिया और वे उसे यहाँ छोड़, हमारा धन ले चले गये। यह व्यापार नहीं, वह वृत्ति थी जिसे हमारे यहाँ राक्षस कहा जाता था, जिसे अपनाने वाला गोरा हो या काला, ब्राह्मण की संतान हो या शूद्र की – ‘अनार्य’ कहलाता था। उन अनार्यों को भी उनके परिवारी और अनुचर ‘आर्य’ कह कर ही बुलाते थे वैसे ही जैसे हम लोग आज भी ‘साहब’ को अपनाये हुये हैं। 

  

भारत आज भी साँवलापन प्रधान है। इसके दो साँवले अवतारी पुरुष आज भी जन जन में रमे हुये हैं। नस्ल या प्रजातीय शुद्धता की विदेशी मान्यता यहाँ कभी प्रधान नहीं रही। यहाँ आर्य का अर्थ श्रेष्ठ जीवन मूल्य से रहा न कि गोरे दुधिया वर्ण से। आम जनता का किसी पुराने शासक वर्ग के देह समान होने की इच्छा, वह भी ऐसी कि क्रीम पोत कर उनके जैसा होने के हास्यास्पद प्रयत्न होने लगें, उसकी धारा में बाभन, ठाकुर, बनिया, सूद सभी वर्णों के साँवले बहने लगें और गोरापन एक बहुत समृद्ध, फलता फूलता अरबी खरबी उद्योग हो जाये; समझ के बाहर है। कोई समझायेगा?    

7 टिप्‍पणियां:

  1. ... सच है दुनिया वालों कि हम नहीं अनाड़ी (अनार्य)

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, खुशहाल वैवाहिक जीवन का रहस्य - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. सब बाजार और व्यापार की महिमा है . जो ना समझे वो अनाड़ी है .

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  4. तब रूप काला करने वाली फेयर न लवली बनायी जाए ? :)

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  5. मानस में वर्ण-निरपेक्षता समाज को सप्रयास स्थापित करनी पड़ेगी। आपका आलेख प्रभावशाली है.

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  6. मानव के जैविक क्रम-विकास (organic evolution) के दौरान त्वचा के रंग का विकास स्थानीय पर्यावरण से प्रभावित हुआ। अफ्रीका के भूमध्यरेखा क्षेत्र में पराबैंगनी किरणों की अधिकता के कारण गोरे मानव प्रकृतिक रूप से जीवित नहीं रह सकते थे। लेकिन जब मानव सारी दुनिया में फैलते गए तो कुछ स्थानों पर गोरे लोग जीवित रह सकते थे, काले नहीं। प्रकृति ने पुरुष के अवचेतन मन में उसके बच्चों की माता का चुनाव करने नैसर्गिक प्रवृत्ति भी विकसित की। बच्चे पैदा करने के लिए साथिन का स्वस्थ होना अनिवार्य है। अवचेतन मन किसी की त्वचा का रंग देख कर उसके खून में घुले हुए विषैले तत्वों का और स्वास्थ्य का अनुमान लगा सकता है, और यह अनुमान लगाना काले या साँवले व्यक्तियों की अपेक्षा गोरे मानुष की त्वचा पर आसान है। पूरे शरीर में ओठों की त्वचा सबसे पतली होती है। ओठों के लाल होने का अर्थ है -- हेमोग्लोबिन की अधिकता, खून में आक्सीजन की अधिकता, विषैले तत्वों की कमी। इस तरह इवोल्यूशन के दौरान मानव के अवचेतन मन ने स्वस्थ साथी की पहचान करना सीखा है। अतः गोरे रंग और लाल ओठों के प्रति स्वाभाविक आकर्षण का विकास हुआ। क्रीम, लिपस्टिक और अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों के व्यापार की सफलता के पीछे यही जैविक कारण हैं। अतः गोरेपन के प्रति आकर्षण की प्रवित्ति नैसर्गिक है, उसके विकास के कारण जैविक ही हैं।

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