रविवार, 9 जनवरी 2011

लंठ महाचर्चा: बाउ और नेबुआ के झाँखी - 7

05012011____________________________________
मेरे पात्र बैताल की भाँति,  
चढ़ जाते हैं सिर और कंधे पर, पूछते हैं हजार प्रश्न।
मुझमें इतना कहाँ विक्रम जो दे सकूँ उत्तर? 
... नित दिन मेरा सिर हजार टुकड़े होता है।
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भाग–1, भाग-2, भाग–3भाग-4, भाग-5, भाग-6  से आगे...

(च)
जाति बाहर होने के अगले ही दिन फेंकरनी की माई चमटोली पहुँची। जिस गाँव गिराम के बच्चे बच्चे को जमीन पर उतारा, उसी ने जात बाहर कर दिया! माई धिया ने उनके लिए कभी न पूस के जाड़ की परवाह की, न जेठ के आतप की और न भादो के झमाझम की। उसका यह सिला मिला! बखार भर रुलाई रह रह उमड़ती और आँखों तक आते मारे क्रोध के सूख जाती। पूरे वजूद को अजीब सी हिचकी ने लपेट लिया था, चैन से रहने भी नहीं दे रही थी और बाहर आते हिचक भी रही थी।
उसने गिरधरिया से सीधे पूछा – हरे दहिजरवा! मूसे नीयर रहले जब जमीनिया पर गिरले। मीस मीस तोके मूसे से मानुख बनवलीं। हमहीं के जाति से निकाल देहले? हो लँगड़ा के कहले पर? ऊहो एतना दिन बाद! (अरे दाढ़ीजार! जब तुम पैदा हुए तो चूहे जैसे थे। मालिश कर कर के तुम्हें चूहे से इंसान मैंने बनाया। मुझे ही जाति से बाहर कर दिये? उस लँगड़े के कहने पर? वह भी इतने दिन बाद!)
बाँध टूट पड़ा और उसके पैर पकड़ विलपने लगी। अरे हम गाँव भर के महतारी हईं। हमार भवानी पेटे से बा। कहाँ ले लोग ओकर धेयान राखित, टोला में मड़ई ले फूँकि देहल। भला नाहीं होई। सबके आगे परी।(अरे मैं गाँव भर की माँ हूँ। मेरी बेटी को बच्चा पैदा होने वाला है। लोगों को तो हमारा ध्यान रखना था लेकिन टोले में हमारी झोपड़ी ही जला दिए! उनका भला नहीं होगा। उनके कुकर्म उनके आगे पड़ेंगे।)
उसे खयाल आया कि उसने अनजाने ही गाँव भर को शाप दे दिया है। उस दुख में भी जीभ को दाँतों से काटा और यह कहते हुए चली गई – सब केहू फले फूले। चमइनिन के का? ऊ कुल त कवनो तरे रहि लीहें।(सभी लोग फले फूलें। चमाइनों का क्या? वह सब तो किसी भी तरह रह लेंगी।)
चमटोली की औरतें आँखें पोछती रहीं लेकिन किसी ने कुछ नहीं बोला और गिरधरिया ने फरमान सुनाया – ओ कुलिन्ह से भेंटो करे अगर केहू जाई त ओहू के इहे हालि होई। भोंसड़ी सबके सरपले बा।(उन सबसे अगर मिलने भी कोई गया तो उसका भी यही हाल होगा। भोंसड़ी ने सबको शाप दिया है।)
उसने सबके फूलने फूलने के आशीर्वाद को दारू के खाली दोने की तरह ही भुला दिया। अगले दिन अल्लसुबह नशे में सूअरों को गाली देते और मिट्टी में लोटते पाया गया।
उस समय दूध का लोटा लिये जुग्गुल अँड़ुहरवा तेली को सियार और कौवे की कोई पुरानी कथा सुना रहा था। 
...जुग जुग जियो जुग्गुल! तुम्हें कीड़े पड़ें।...
अँड़ुहरवा तेली वह अकेला आदमी था जिसके दो नाम प्रचलित थे। पुरुष सोविधा के हिसाब से उसे अँड़ुहर या अँड़ुहरवा कहते और स्त्रियाँ हुमचावन। नाटे कद का तो वह था ही लेकिन उसकी टाँगे भी अनुपात के हिसाब से छोटी थीं। उसके नामों के पीछे उसके विशाल लटकते अंडकोशों के दाय थे। गाँव के शोहदे घुटने से भी नीचे तक लटकते अँड़ुआ (अंडकोश)के कारण उसे एक घलुआ नाम से भी पुकारते - तिनगोड़वा – ऐसा आदमी जिसके तीन पैर हों। झूलते अँड़ुआ के कारण टाँगे फैलाये वह धीमे धीमे चलता। बैठता तो कई दफा अँड़ुआ झाँकता नजर आता जिसके ऊपर अति लघु शिश्न सिकुड़ा सा चिपका रहता। यूँ लगता कि किसी गिद्ध को छील कर बैठा दिया गया हो और वह अपने सिर को सिकोड़े देह की चिकनाई निहार रहा हो। उस पर एकाध घाव हमेशा रहते और धोती पर खून के धब्बे भी। लंठ किस्म की औरतें कहतीं कि तेलिया हमेशा माहवारी में रहता है।
लँगड़े जुग्गुल से उसकी बनती थी लेकिन दोनों कभी साथ चलते नहीं देखे जाते थे। 
असल में कभी पहली दफा जब दोनों साथ निकले थे तो जुग्गुल की तेज लँगड़चाल और अँड़ुहर की लटकन चाल का कोई मेल नहीं था। लिहाजा जुग्गुल रुक रुक उसे अगोरता और गरियाते हुए तेज चलने को कहता। अँड़ुहरवा बस दाँत निपोर देता। यह तमाशा देख गाँव के लौंडों में से किसी के ऊपर यह ऋचा उतरी –
लँगड़ा कहे अँड़ुहर लटकन दे, तोरो ठीक हमरो ठीक
अँड़ुहर कहे लँगड़ा लटकन दे, तोरो बेठीक हमरो बेठीक।
(लंगड़ा अँड़ुहर से उसे माँगता है जो लटकता है ताकि वह तीन से दो पैरों का होकर ठीक हो जाय और लँगड़े के पैर पूरे हो जायँ। अँड़ुहर कहता है कि लटकने दे। तुम भी बेठीक रहो और मैं भी।)
लौंडों की चिढ़ावन के कारण दोनों जब उनके पीछे भागे तो वो नज़ारा हुआ कि पूछो न! अँड़ुहर तेली एक लौंडे के ऊपर गिर पड़ा। अजीब सी स्थिति थी। लौंडे के मुँह पर उसका विशाल अँड़ुवा था और उठने के प्रयास में अँड़ुहर रह रह हुमच रहा था। लौंडा बस चीखे जा रहा था। औरतों को अँड़ुहर के लिए एक नया नाम मिला – हुमचावन। इस नाम में अँड़ुहर जैसी सीधी बेशर्मी नहीं थी। जो कुँवारी थीं वो यह बतिया बतिया फिचकी मारती रहती थीं कि हुमचावन की शादी हो तो सुहाग रात के दिन क्या हो?
जिस लौंडे के ऊपर अँड़ुहर गिरा था, उसने भी प्रतिकार वश एक नई सात्विक चिढ़ावन का आविष्कार किया – अड़हुल।
अड़हुल तो फूल होता है लेकिन अँड़ुहर तेली से कोई अगर यह पूछ देता कि अड़हुल के फुलवा क गो पतवा (अड़हुल के फूल में कितनी पंखुड़ियाँ?) तो पंखुड़ियों की संख्या बताने के बजाय अँड़ुहर तेली उसके सात पुश्तों तक की बूढ़ी, जवान, बच्ची सबसे अपना नाता जोड़ने में लग जाता।
(छ)
कुछ हफ्तों तक अपने पेशाब करने के व्यवहार को नियंत्रित कर ध्यान से देखने पर जुग्गुल को लगा कि नींबू का पौधा उसके थल्ले में मूतने पर अधिक तेजी से बढ़ता है और हरा भरा रहता है। अपने परम प्रिय काका रामसनेही की सिखावन को बँड़ेर पर फेंक वह नियमित रूप से वहीं पेशाब करने लगा। गोबर की खाद भी कभी कभार डाल देता।
खदेरन पंडित के अभिचार में उसने एक वृद्धि कर दी – अँड़ुहर तेली के कोले से एक और लहलहाते नींबू को लाकर वहीं बगल में रोप दिया। न कोई मंत्र, न कोई तंत्र और भैरवी की राह में तो उसने पहले ही काँटे बिछा दिए थे। उस रात बदली थी - तिनजोन्हिया का अता पता नहीं। गुड़ेरवा नीम की डाल पर जो बैठा तो दिन चढ़ आने तक वहीं बैठा रहा। कौवे बस उसे तकते रहे, एक ने भी उसे छेड़ने की जहमत नहीं उठाई।
आश्चर्य की बात थी कि पातकी जुग्गुल की शुभेच्छा बहुत फली। वयस्क पौधे ने भी जड़ पकड़ ली। बाड़ के भीतर सुरक्षित नींबुओं के बढ़ने की रफ्तार धीरे धीरे चर्चा का विषय बन गई। कितने ही महीने बीत गए। एक दिन सग्गर के लगाये नींबू में बेमौसम फूल खिला। फूल से फुलौना और फिर नारंगी सी रंगत लिये पूरी बाढ़ और निखार वाला फल। रामसनेही निहाल हो गए। बाड़ और ऊँची कर जुग्गुल को चेता दिए – खबरदार! पहले फल को कोई हाथ न लगाने पाए।
जुग्गुल आने वाले भतीजे की सोच गुलगुल होता रहा और गाँव में विष बोता रहा।
उधर खदेरन के गोंयड़े के खेत में गर्भभार फेंकरनी को खुद से मुक्त करने की सोच में पड़ा था, जब कि फेंकरनी और सग्गर वल्द रामसनेही की बहुरिया दोनों सोहर की धुनों में गोते लगा रही थीं – झूलहु हो लाल झुलहु! दोनों को यकीन था कि बेटे ही पैदा होंगे। सगुनी काकी कभी गलत सिद्ध नहीं हुई!
जिस घर के एक सँवाग (सदस्य) ने उसका जीना हराम कर दिया था, उसी घर के आने वाले उत्तराधिकारी की चिंता में फेंकरनी की माई दुबली हो रही थी – अगर फेंकरनी और सग्गर बहू एक ही दिन उऋण हुईं तो वह कैसे सँभालेगी? उसने आना जाना, खोज खबर लेना नहीं छोड़ा। आते जाते जाने क्यों उसे नींबू से लटकते फल को देख चिढ़ सी होती। उसे वह हुमचावन के अँड़ुवे जैसा दिखता, खदेरन भी याद आते और वह उन्हें मन ही मन सैकड़ों गालियाँ देती।
...वापस लौटते खदेरन पंडित अपने जिले में कदम रख चुके थे। (जारी)



17 टिप्‍पणियां:

  1. सब सिनेमा के पर्दे पर चल रहा हो जैसे, फ़िल्म के लिहाज से भी प्लॉट शानदार है। इंतज़ार है आगे की कडि़यों का।


    @विक्रम-बैताल:
    उतना है या नहीं, ये विवाद का विषय है। लेकिन विक्रम है और ये होना ही मायने रखता है। बैताल का भी आखिर कोई स्टैंडर्ड है, यूँ तो नहीं हर किसी के सर कांधे पर सवार हो जाता:)

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  2. अद्भुत लेखन।
    ..वाकई लगता है कि बेताल दिखा जाता है आपको गांवे के दृष्य। इतना सजीव वर्णन कम ही पढ़ने को मिलता है। हम भाग्यशाली महसूस कर रहे हैं जो इस महासृजन के अक्षिसाक्षी बन रहे हैं। हमको तो लग रहा है कि भविष्य में आप इस लंठ महाचर्चा के नाम से ही प्रसिद्धि पायेंगे। अनूठा होने के साथ-साथ इतना रोचक है कि सब कुछ छोड़कर इसे पढ़ने की इच्छा होती है और टिप्पणी करते वक्त ठहर सा जाता हूँ कि क्या लिखूं...!

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  3. अँड़हुरवा तेली का प्रसंग रोचक है. ऐसे ही एक व्यक्ति को मैंने भी अपने ननिहाल में देखा है. :) :)

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  4. .
    .
    .
    अँड़हुरवा जैसे हाइड्रोसील के पुराने व विकराल रोगी आज भी हर गाँव में हैं... धन्य हैं हम भी...


    ...

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  5. संवादों से कहानी को सशक्त आधार दिया जाता है, देख रहे हैं।

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  6. @@ हरे दहिजरवा! मूसे नीयर रहले जब जमीनिया पर गिरले। मीस मीस तोके मूसे से मानुख बनवलीं......
    कहाँ से छांट के लाये हैं अवधी के शब्द ,गजब.

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  7. जुग्गुल तेली का जो नाम पड़ा उसमें ‘उ’ की मात्रा ‘ड़’ पर लगनी चाहिए न कि ‘ह’ पर। यह मैं अपने इलाके के प्रयोग के आधार पर कह रहा हूँ। वैसे भी जिस अंग विशेष पर यह नाम आधारित है उसकी वर्तनी में ‘ड़ु’ ही है।

    लेकिन यह कड़ी आप द्वारा लिखित सभी सामग्रियों में सबसे बोल्ड कही जा सकती है। इस विशेषण वाची संज्ञा शब्द का प्रयोग ग्रामीन अंचल में तो लंठ लड़कों के मुँह से खूब सुना है, लेकिन इस रचना में इसका सजीव चित्रण बहुत देर तक हँसाता रहा। बल्कि मेरा तो सिर दुखने लगा है। यकबयक साँस अव्यवस्थित हो गयी।

    यह शृंखला अब ‘एथनिक’ होती जा रही है।

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  8. @ सिद्धार्थ
    बड़ी बारीक नजर और पर्यवेक्षण हैं भाई :)
    ठीक कर दिया है।
    धन्यवाद।

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  9. हुमचावन का अंड़ुआ प्रकरण तो जोरदार है। हर गाँव में इस तरह के एक दो लोग मिल जाते हैं, कहीं कहीं पर तो माना जाता है कि ज्यादा साइकिल चलाने से वैसा हो गया तो कहीं कहीं इसे विशुद्ध पाप की सजा करार दे दिया जाता है। अब पाप की रेटिंग पता नहीं कैसे तय होती है लेकिन लोग कहते हैं :)

    इस तरह से बोल्डनेस वाली पोस्ट लिखा जाना जरूरी है वरना सब कोई शुचितावादी का ही ढोंग करेंगे तो 'काशी का अस्सी' की तरह की बोल्ड कृति कैसे फिर से लिखी जायगी ?

    एक अलग ही साहित्य होता है इस तरह का 'अंडुआ पुराण' :)

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  10. @ अँड़ुआ (अंडकोश)के कारण उसे एक घलुआ नाम से भी पुकारते - तिनगोड़वा – ऐसा आदमी जिसके तीन पैर हों। झूलते अँड़ुआ के कारण टाँगे फैलाये वह धीमे धीमे चलता। बैठता तो कई दफा अँड़ुआ झाँकता नजर आता जिसके ऊपर अति लघु शिश्न सिकुड़ा सा चिपका रहता। यूँ लगता कि किसी गिद्ध को छील कर बैठा दिया गया हो और वह अपने सिर को सिकोड़े देह की चिकनाई निहार रहा हो। उस पर एकाध घाव हमेशा रहते और धोती पर खून के धब्बे भी। लंठ किस्म की औरतें कहतीं कि तेलिया हमेशा माहवारी में रहता है।
    --- अद्भुत ! बहुत रम कर लिखा है आपने ! एकदम बीडियो मार्का ! .............. उधर हुमचावन की सुहागरात तक रिसर्च जारी है ! यही है जो और कहीं नहीं ! खींच डाले आर्य , बधाई !
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    आगे की प्रतीक्षा !

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  11. व्यग्रता से प्रतीक्षा रहती है अंकों की ...अधिक विलम्ब न किया करें प्रकाशित करने में...

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  12. उसे खयाल आया कि उसने अनजाने ही गाँव भर को शाप दे दिया है। उस दुख में भी जीभ को दाँतों से काटा और यह कहते हुए चली गई – सब केहू फले फूले। चमइनिन के का? ऊ कुल त कवनो तरे रहि लीहें।
    स्वयम को परम-संकट में डालने वाले समाज तक का अहित न हो, क्या सोच है फेंकरनी की!
    अगली कडी का इंतज़ार है।

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  13. नहीं - माफ़ कीजिये अनुराग शर्मा जी - बात काट नहीं रही हूँ - सिर्फ ध्यान खींच रही हूँ पात्र के चरित्र रूपण की ओर ... - यह दुआ फेंकरनी नहीं - उसकी माई ने दी है - पात्र के चरित्र में बिल्कुल फिट बैठती है यह बात - पूरे गाँव की माई जो ठहरी !!!
    ........ "अरे हम गाँव भर के महतारी हईं "
    वैसे आपकी टिप्पणी है जनवरी की - तो अब शायद ही आप यह देखें ... फिर भी ...

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  14. @माफ़ कीजिये ...

    :(
    फेंकरनी और माई के बीच कन्फ्यूज़न होने का कारण इस पोस्ट में अचानक से अवधी/भोजपुरी/ग्राम्य (या जो भी हो) के बहुत से शब्द आ जाना भी हो सकता है और लिखते-लिखते किसी वजह से ध्यान बँट जाना भी हो सकता है। उसी समय पूछा जाता तो शायद बेहतर बता पाता।

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