मंगलवार, 11 सितंबर 2012

कोणार्क सूर्य मन्दिर - 18 : पश्चिमी तट से विदिशा की ओर ...

भाग 1,  2345678910111213141516 और 17 से आगे... 


पश्चिमी तटक्षेत्र का विशाल भूदृश्य है। एक कैनवस जिसमें मैं साक्षी हूँ, कोने पर स्थिर, नभ निहारता तूलिका के दो तीन स्पर्श भर अस्तित्त्व हूँ। जहाँ बैठा हूँ, चट्टान नहीं झूलता कालखंड है। नभ की नीलिमा विलुप्त है। साँवरे कारे मेघ घिरते नीचे उतर आये हैं। दृष्टिपटल पर दूर लघु पर्वतमालाओं का आभास है। मुझे लगता है कि धरा से क्षितिज छिन चुका है।

 निर्जन एकांत में कहीं से उमस भरी गहिमणी गीली पुकार उभरी है – तुम हो? स्वरहीन महीन झींसे की झीनी तैरती सी बूँदें काँप काँप मुझे घेरने लगी हैं – तुम हो?
‘नहीं, मैं नहीं हूँ ... यहाँ नहीं हूँ, दूर पूर्वी तट पर हूँ।‘
मौन भर पुलकित धीमी हँसी। गीली झीनी कँपकँपाती अदृश्य बूँदे, भीगती देह और नभ में छाने लगे हैं कितने घुले वर्ण – गैरिक, रक्त, पीत, केसर। चन्द्रभागा के प्रात:कालीन तट की स्मृति हो आई है... ईर्ष्यालु बूँदे सिमट गईं।
 मेघों के पीछे से प्रभापुरुष झाँक रहा है ... हविषा विधेम! चित्र स्थिर है। यह लाली! अरुणोदय है क्या?
‘नहीं, तुम विक्षिप्त हो!’
काले मेघ नहीं, ये बेचैन प्रश्नों के अंधेरे हैं। इतने बड़े विद्रोही निर्माण में इतना सरल आयोजन कि विषुव दिनों में प्रात: के कुछ क्षणों तक रश्मियाँ गर्भगृह के अंधेरे तक पहुँचें? ऐसा तो मोदेरा के सूर्यमन्दिर और दक्षिण के पूर्वाभिमुख कई मन्दिरों में होता है, अर्कक्षेत्र के मित्रवंशी इतने से ही संतुष्ट हो गये होंगे?
बाहर का झुटपुटा वैसे ही है लेकिन भीतर अचानक उत्तरों के प्रकाशपुंज दीप्त हो उठे हैं।
मुझ मनुष्य पर भारी घिर आये गज स्वरूप मेघ और उन पर सवारी गाँठता नरसिंह स्वरूप सूर्य! - कोणार्क में आगंतुकों का स्वागत करती सिंहद्वार की विशाल नर-गज-सिंह प्रतिमायें।
अरुणोदय -  अब जगन्नाथ पुरी के पूर्वी द्वार पर विराजमान कोणार्क से ले जाया गया अरुण स्तम्भ।...मन्दिर नहीं रे! वह विशाल छायायंत्र था!! शंकुयंत्र। संक्रांतियों और सूर्यगतियों के प्रेक्षण की धर्म वेधशाला थी वह!
अरुण स्तम्भ ही नहीं विमान का शिखर, पीछे कोने पर बना रहस्यमय छायादेवी का मन्दिर, रथाकार मन्दिर के पहिये, सब, सभी सौर प्रेक्षण के यंत्र थे। अंशुमाली सूर्य का महागायत्री महालय आराधना स्थल के अतिरिक्त वेधशाला भी था। रथाकृति में बने महागायत्री महालय के 6,4,2 के युग्म में स्थापित 24 पहिये कालगति के प्रतीक हैं।
..तट की चट्टान तपने सी लगी है, पाँवों के नीचे कालचक्र उग आये हैं। भागते हुये अपने कक्ष में पहुँच कर मैंने संगणक को ऑन कर दिया है - इंटरनेट और साइट www.sunearthtools.com। यहाँ मैं सूर्य की गति को, छायाओं को, रश्मियों को वर्ष के किसी दिनांक और किसी समय पर देख सकता हूँ। Konark sun temple टंकित कर ध्वंसावशेषों में प्रवेश कर गया हूँ। मेरे साथ हैं – प्रो. बालसुब्रमण्यम, एलिस बोनर, के. चन्द्रहरि, सदाशिव रथ और उनके कई शिष्य।

काल और स्थान की सीमायें छिन्न भिन्न हो गई हैं। वे सभी मुझे  पकड़ कर पश्चिमी तटक्षेत्र से दूर उज्जयिनी क्षेत्र की ओर ले उड़े जा रहे हैं। उस क्षेत्र में लगभग कर्क वृत्त पर पड़ती है विदिशा नगरी – अक्षांश 23° 32' 0" उ., देशांतर 77° 49' 0" पू.।

मेरी उलझन को भाँप कर प्रो. बालसुब्रमण्यम ने बताया है – कोणार्क के ध्वंशावशेषों में शंकुयंत्र का सन्धान करने से पहले वह तो देख लो जो अभी भी ध्वस्त नहीं हुआ है, जहाँ विष्णुस्तम्भ वैसे ही है जैसे लगा था। हाँ, उसमें भी अष्टकोण और षोडषकोण हैं जैसे तुम्हारे कोणार्क के अरुण स्तम्भ में हैं। प्रोफेसर ने ‘तुम्हारे’ पर वात्सल्य भरा जोर दिया है। मैं मान गया हूँ। 
 (जारी) 

                           

11 टिप्‍पणियां:

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  2. पीछे की यात्रा पर आगे बढ़िए आर्य! प्रतीक्षा है...।

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  3. यह समझने में मुझे मेहनत करनी पड़ रही है। जानते हो क्योँ? क्योँकि यह गद्य नहीं, कविता है।

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  4. आप सचमुच कालयात्री हुए जाते हैं आर्य!

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  5. कुछ माहों से यात्रा पर ही रहा हूँ इसलिए शायद ग़लतफ़हमी हो. पश्चिम तट का क्यों उल्लेख हो रहा है, समझ नहीं पाया. पीछे जाकर देखता हूँ.

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  6. beautiful. lovely. i have no words to thank you, and yet i have to - thanks girijesh ji, for making the whole picture come alive before us, thanks thanks ....

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  7. बहुत दिन से दौड़ रहा हूं, दर्शक मात्र बनने के लिए, अब तो हांफने लगा हूं। नहीं आया समझ... या तो दोबारा लिखें या इसी की टीका लिखकर समझाएं... यह मेरा हक है, एक पाठक के नाते... :(

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    1. aarya kee bhaasha badi klisht hai na :)

      shilpamehta

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    2. :) मैं इसे महायात्रा कहूँगा जिसमें कई छायाचित्र हैं और समग्रता का कलेवर भी।
      छठी में रहा हूँगा जब पहली बार कोणार्क मन्दिर का चित्र देखा। सम्भवत: पुस्तक के कवर पर भी कोणार्क के पहिये का चित्र था। भीतर मन्दिर को विमान के साथ पूर्ण दिखाया गया था। मन्दिर और भवनों के चित्र तो बहुत देखे थे लेकिन जाने इसका अनुपात था या कुछ और, वह मानस पटल पर अंकित हो गया। आगे की कक्षाओं सम्भवत: दसवीं तक भी मैं पुस्तकों में इसे देखता रहा, पढ़ता रहा। बाद की पुस्तकों में केवल भोगमंडप दर्शाया जाने लगा और मुझे बहुत दुख हुआ कि मन्दिर का असल भाग तो ध्वस्त हो गया। जब कि वास्तविकता यह थी कि वह बहुत पहले ही ध्वस्त हो चुका था और पुरानी पुस्तकों में उसके संभावित पूर्ण रूप का कल्पनाचित्र ही दिया जाता था।...बहुत बाद में समझ में आया कि रूपाकार या अनुपात आदि पर मेरी दृष्टि अलग सी होती है। यहाँ तक कि मनुष्य देह, चेहरे मोहरे आदि को भी परखते हुये मैं घूरने तक का अपराधी बन जाता :) ... जब बिटिया को एक प्रतियोगिता में भुबनेश्वर जा कर प्रेजेंटेशन देने का अवसर आया तो मैंने भी योजना बना ली कि उस मन्दिर को देखना ही है जो बचपन से मन को मथे हुये है। अध्ययन शुरू किया और अचम्भित होता गया - भारत के एक ग़रीब क्षेत्र के निवासियों की संघर्ष वृत्ति, कलात्मकता, गौरव और उनके एक महान राजा नरसिंहदेव प्रथम के बारे में जानने को मिला जिसे हमारे सेकुलरी इतिहासकारों ने केवल इसलिये दबा कर रखा हुआ है कि वह इस्लामी हमलावरों को उन्हीं की भाषा में उत्तर दे विजयी रहा और जिसके कारण तीन सौ वर्षों तक उड़ीसा हमलों से मुक्त रहा।... मैं इतिहास, साहित्य, पुरातत्त्व, स्थापत्य, संस्कृति आदि आदि सभी वीथियों में घूम रहा हूँ। इस बहाने भारत के शिल्पशास्त्र पर कुछ अध्ययन भी है और एक मुग्ध बच्चे की भावुकता भी... विष्णुध्वज और सूर्यस्तम्भों के रूपाकार सौर गतियों के प्रेक्षण में भी प्रयुक्त होते थे। कोणार्क में तो कुछ बचा नहीं, उसे पुन: सृजित करने के लिये ऐसा आधार होना चाहिये जहाँ सब स्पष्ट हो। विदिशा ऐसा ही स्थान है जहाँ गुप्तकाल के बहुत ही स्पष्ट अभिलेख हैं, संरचनायें हैं और विद्वानों के अध्ययन भी। इसलिये वहाँ पहुँच गया... नर-गज-सिंह के गूढ़ार्थ को सुलझाने के चक्कर में मन ही मन कई दिन बुरी तरह से उलझा रहा और एक दिन जब कि यात्रा के दौरान मैं पश्चिम में था, प्रात: के निर्जन में झीनी बारिश में भीगते हुये अचानक ही मन की आँखों ने कुछ बहुत स्पष्ट सा देखा, आभास तो पहले से था लेकिन इतने स्पष्ट रूप में नहीं। पहले दो अनुच्छेद उसी क्षण के आगे पीछे के समय को दर्शाते हैं। ऐसे मौकों पर अनुभूतियों की सान्द्रता सवार हो जाती है और ऐसे शब्द स्वत: ही बाहर आने लगते हैं। ...ढेर सारा पढ़ चुका हूँ। एलिस बोनर ने तो बहुत गहरा प्रभाव डाला है जब कि उनकी मुख्य पुस्तक अभी डाक में है। प्रतीक्षा कीजिये, और क्या कह सकता हूँ? :)

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